Eid-ul-adha (Qurbani)
कुर्बानी का हुक्म...(Eid-ul-adha)
ईद उल अज़हा की कुर्बानी इस्लामी शरीयत की मुकर्रर करदा एक निहायत अहम और बाइस ए अजर व फज़ीलत इबादत है। मुसलमानों के लिए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इसकी तशरीह इज्तिमा व तवातूर से साबित है। इसका दर्जा ए हुक्म बैत-उल-हराम के उमरे और ए'तिकाफ़ ए मस्जिद की तरह एक पसंदीदा नफ़्ल इबादत का है। ये शरीयत की तरफ़ से मुसलमानों पर लाज़िम नहीं की गई है। इस्लाम में नमाज़, रोज़ा, हज्ज, ज़कात और सद़का फितरा के सिवा कोई और इबादत उसके मानने वालों पर लाज़िम नहीं है।
कुर्बानी के हुक्म के बारे में यही तसव्वुर सहाबा-किराम रज़ी अल्लाहुअन्हुम के इल्म व अमल से मालूम होता है और उम्मत के जम्हूर उलमा, फ़ुक़हा व मुहद्दिसीन का मौक़िफ़ भी इसके बारे में यही है। और यही वजह है कि कुर्बानी के बाब में बाज़ फ़िक़ही इख़्तिलाफ़ात के बावजूद किसी फ़क़ीह ने कभी इसको फ़र्ज़ करार नहीं दिया। तन्हा हनफ़ी फ़ुक़हा ने जिन दो अख़बार आहाद की बुनियाद पर इसके लिए वाजिब की अपनी ख़ास इस्तिलाह इस्तेमाल की है, फ़न ए हदीस की रु से वो दोनों रिवायतें कौल ए रसूल की हैसियत से गैर साबित व गैर मुस्तनद हैं।
जो शख़्स भी तक्वा और इख़्लास ए नियत के साथ ईद की कुर्बानी करता है, वो अल्लाह के नज़दीक ज़रूर क़ुबूल और अज्र का मुस्ताहिक होगा और जिसने कुर्बानी नहीं की, वो कत'अन गुनाहगार नहीं होगा।
हमारे हां जो लोग कुर्बानी के वुजूब (वाजिब होने) के क़ाइल हैं वो ज़कात की तरह कुर्बानी का भी निसाब बयान करते हैं। बाज़ लोगों का कहना है कि एक कुर्बानी घर के सब अफ़राद को किफ़ायत नहीं करती बल्कि घर के हर फ़र्द की तरफ़ से अलग अलग कुर्बानी करना लाज़िम है। मालूम नहीं उनके पास इन सब बातों का क्या माख़ज़ है।
कुर्बानी नफ़्ल इबादत है।
कुरआन व सुन्नत में इबादात की दो ही अक़्साम बयान हुई हैं। एक फ़र्ज़ जो अल्लाह ने लाज़िम कर दी उसके न करने पर पूछा जायेगा और दूसरी ततव्वो (नफ़्ल) है जो बंदा फ़र्ज़ के अलावा अपने शौक़ से ज़ाइद तौर पर करता है। उसके बारे में अल्लाह का फरमान है:
"जिसने अपने शौक़ से नेकी का कोई काम किया तो अल्लाह उसे क़ुबूल करने वाला है, उससे पूरी तरह बा-ख़बर है। (अल बकरा: 158)
वाजिब, मुस्तहब, मुवक्किदा व गैर मुवक्किदा की इस्तिलाहात हमारे फ़ुक़हा की क़ाइम करदा हैं कुरआन व सुन्नत इन इस्तिलाहात से ख़ाली हैं।
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